SIR विवाद: बिहार में वोटर लिस्ट सुधार पर सियासी बवाल, क्या निर्वाचन आयोग को देनी चाहिए खुली सफाई?
भारतीय लोकतंत्र में चुनाव सिर्फ राजनीतिक वैधता और नागरिक भागीदारी का आधार नहीं, बल्कि यह उस मजबूत बुनियाद का प्रतिनिधित्व करते हैं जिस पर पूरी व्यवस्था टिकी है।
इन चुनावों को स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से संपन्न कराने की जिम्मेदारी निर्वाचन आयोग पर होती है।
लेकिन हाल में आयोग खुद विवादों और सवालों के घेरे में आ गया है।
क्या वह अपनी निष्पक्षता और पारदर्शिता बनाए रखने में कहीं चूक रहा है?
इस सवाल पर वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पॉलिसी एंड एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक डॉ. सुशील कुमार सिंह कहते हैं—
“पिछले कुछ वर्षों में लगे गंभीर आरोपों ने आयोग की साख को चुनौती दी है। ऐसे में आयोग को आगे आकर सफाई देनी चाहिए और अपनी छवि को सुधारने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए।”
लोकतंत्र की पुरानी चुनौतियां
भारत की चुनावी प्रक्रिया समय-समय पर कई चुनौतियों का सामना करती रही है—
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धन और बल का दुरुपयोग
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राजनीति का अपराधीकरण
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दल के भीतर लोकतंत्र की कमी
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मतदान में घटती भागीदारी
जहां आयोग जागरूकता बढ़ाने और वोटिंग प्रतिशत में सुधार की अपील करता है, वहीं आरोप लगने पर अक्सर चुप्पी साध लेता है, जो उसकी साख को नुकसान पहुंचा सकता है।
SIR पर विवाद क्यों?
संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत गठित निर्वाचन आयोग ने हाल ही में बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) शुरू किया।
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विपक्षी दल जैसे आम आदमी पार्टी, कांग्रेस, राजद ने इस प्रक्रिया की निष्पक्षता और समय पर सवाल उठाए।
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राहुल गांधी ने आयोग पर गंभीर आरोप लगाते हुए बाकायदा प्रेजेंटेशन पेश किया।
आयोग का पक्ष
आयोग का कहना है—
“हर चुनाव से पहले मतदाता सूची का अपडेट एक नियमित प्रक्रिया है। इसका मकसद नए मतदाताओं का पंजीकरण और मृत/डुप्लीकेट नाम हटाना है।”
वोटर लिस्ट की बड़ी खामियां
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डुप्लीकेट नाम – एक व्यक्ति का कई जगह नाम दर्ज होना।
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मृत मतदाताओं के नाम का न हटना।
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फर्जी वोटरों की पहचान में तकनीकी खामियां।
सुधार के सुझाव
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संदिग्ध पतों पर विशेष जांच।
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वोटर आईडी–आधार लिंकिंग – मार्च 2025 में इस पर सहमति बनी।
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नई तकनीक से फर्जी नामों की पहचान।
चुनाव सुधार की पुरानी सिफारिशें
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1980 तारकुंडे समिति
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1989 दिनेश गोस्वामी समिति
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टी.एन. शेषन के सुधार
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विधि आयोग 1999 की सिफारिशें
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लोक जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन